MP Politics Dissatisfaction of loved ones deepens in Madhya Pradesh Congress party jagran special

संजय मिश्र। MP Politics ज्योतिरादित्य सिंधिया एवं उनके समर्थकों के कांग्रेस छोड़ने के बाद भी मध्य प्रदेश में पार्टी में असंतोष गहराता ही जा रहा है। 2018 में जिस राज्य में भाजपा को हराकर सत्ता की सीढ़ी चढ़ी कांग्रेस इतने कम समय में आंतरिक झंझावातों से घिर जाएगी किसी ने सोचा नहीं था। कमल नाथ एवं दिग्विजय की जुगलबंदी में अधिकतर बड़े नेता खुद को हाशिये पर महसूस कर रहे हैं। वे संकेतों में तथा खुलकर भी बता रहे हैं कि किस तरह कांग्रेस कमल नाथ के घेरे में सिमट गई है।

पार्टी में लोकतंत्र का मुद्दा उठाया जा रहा है और यह भी कि कम समय में ही कांग्रेस की सरकार का पतन सिर्फ इसीलिए हो गया, क्योंकि राज्य में पार्टी ने अपने वास्तविक कार्यकर्ताओं को महत्व नहीं दिया। खंडवा लोकसभा सीट से पिछले दो चुनाव लड़ चुके पूर्व प्रदेश अध्यक्ष अरुण यादव का अचानक उपचुनाव लड़ने से मना कर देना पार्टी में गहराते संकट का द्योतक है। इससे संकेत मिलता है कि राज्य में कांग्रेसियों का एक बड़ा वर्ग मौजूदा अध्यक्ष कमल नाथ से तालमेल नहीं बना पा रहा है।

अरुण यादव सांसद रह चुके हैं और मनमोहन सिंह की सरकार में राज्यमंत्री भी। उनके पिता सुभाष यादव भी कांग्रेस के बड़े नेताओं में थे और प्रदेश अध्यक्ष रह चुके हैं। अरुण 2019 के लोकसभा चुनाव में खंडवा सीट से भाजपा प्रत्याशी नंद कुमार सिंह चौहान से हार गए थे। कुछ माह पूर्व चौहान का निधन हो जाने से यह सीट रिक्त हो गई है। इसलिए अरुण खुद को स्वाभाविक उम्मीदवार मानकर इस सीट से उपचुनाव लड़ने की तैयारी कर रहे थे। उन्होंने केंद्रीय नेतृत्व से लेकर राज्य नेतृत्व तक के सामने अपनी दावेदारी पेश की, लेकिन कहीं से भी उन्हें भरोसा नहीं मिला। सोनिया गांधी के बेहद भरोसेमंद प्रदेश अध्यक्ष कमल नाथ ने उनकी ऐसी घेरेबंदी की कि अंतत: दुखी होकर उन्हें मैदान से हटने की घोषणा करनी पड़ी। उनके इस कदम की भनक लगते ही पार्टी ने बिना देर किए राजनारायण सिंह पूरनी को टिकट दे दिया। भले ही राजनारायण को कांग्रेस ने अपना उम्मीदवार बना दिया है, लेकिन यह सवाल जीवंत है कि लंबे समय से टिकट मांग रहे अरुण यादव ने अचानक उपचुनाव न लड़ने की घोषणा क्यों कर दी? उनकी बातों से इसका उत्तर भी मिल रहा है।

हालांकि पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह इस घटनाक्रम से निकल रहे संदेश को संभालने की यह कहकर कोशिश कर रहे हैं कि अरुण यादव हमारे नेता हैं, वह खंडवा के लिए बेहतर प्रत्याशी थे, पर अब मना कर चुके हैं तो पार्टी दूसरे को टिकट दे रही है। अरुण की बात पर गौर करें तो उन्हें प्रत्याशियों के बारे में किसी एजेंसी से कमल नाथ द्वारा कराए गए कथित सर्वेक्षण को लेकर दिक्कत है। वह कह चुके हैं कि जब कमल नाथ सर्वेक्षण करा चुके हैं तो वह उसे ही टिकट देंगे जो जीतने वाला होगा। जाहिर है इसमें अरुण को सर्वेक्षण के नाम पर टिकट से वंचित करने की कवायद लग रही थी। इसीलिए उन्होंने बिना देर लगाए अपनी स्थिति स्पष्ट कर दी, ताकि हाईकमान तक उनका यह संदेश पहुंच जाए। आशय साफ है कि अरुण के त्याग के पीछे बड़ी कहानी है, क्योंकि मध्य प्रदेश की राजनीति में अरुण और कमल नाथ दो ध्रुव हो चुके हैं। दोनों के असहज संबंधों का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि कमल नाथ सरकार के अल्प कार्यकाल में कार्यकर्ताओं की उपेक्षा का मुद्दा अरुण कई बार उठा चुके हैं।

हाल में उन्होंने शिवराज सरकार के मंत्री नरोत्तम मिश्र के घर पर मुलाकात कर सियासी पारा चढ़ा दिया था। कुछ दिन बाद नरोत्तम भी उनके घर पहुंच गए और तर्क दिया कि वह शिष्टाचार भेंट करने गए थे। कोई राजनेता अपनी विपक्षी पार्टी के किसी बड़े नेता के घर सिर्फ शिष्टाचार भेंट करने जाएगा यह तर्क किसी के गले नहीं उतर रहा है।

जाहिर है संकेतों में भी बात कही जाती है और इन मुलाकातों में भी कोई न कोई संकेत तो है ही। हाल में जोबट क्षेत्र से दो बार विधायक रह चुकीं पूर्व मंत्री सुलोचना रावत ने भी अपने बेटे विशाल रावत के साथ कांग्रेस को अलविदा कह दिया। उन्होंने मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान एवं प्रदेश अध्यक्ष बीडी शर्मा की उपस्थिति में भाजपा का दामन थाम लिया। अंचल में अच्छी पकड़ रखने वाली सुलोचना कांग्रेस में अपनी उपेक्षा से नाराज थीं। पिछले दो साल के अंदर कांग्रेस छोड़ने वाले नेताओं की संख्या की गणना करें तो सूची लंबी होती जाएगी।

[स्थानीय संपादक, नवदुनिया, भोपाल]