राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने ‘सु-राज’ पर जोर दिया है, जिसका लफ्जी मानी है ‘सुशासन’ यानी एक अच्छी हुकूमत. एक जम्हूरी निजाम में सुशासन को कायम करना एक मुसलसल चलने वाला काम होता है. भागीदारी, आम सहमति, जवाबदेही, पारदर्शी, उत्तरदायी, प्रभावी और कुशल, न्यायसंगत और समावेशी होने के साथ-साथ ‘कानून का शासन’ सुशासन की बुनियाद है. जहाँ एक तरफ योजनाबद्ध आर्थिक कार्यक्रमों के जरिए सरकारी कोशिशों से लोक कल्याण और मुल्क की तरक्की सुनिश्चित की जाती है. किसी भी मुल्क की सबसे बड़ी पूंजी उसके योग्य और सक्षम अवाम ही होती है. चरित्र, ज्ञान और कौशल से लबरेज अवाम ही योग्य और सक्षम कहे जाते हैं जो किसी भी तरह की जाती या सामूहिक चुनौती को एक मौके में तब्दील कर देती है.
शिक्षा ही वह माध्यम है जो ऐसे योग्य और सक्षम नागरिकों का निर्माण करती है. हिन्दुस्तानी ज्ञान, परंपरा, संस्कृति व सभ्यता दुनिया में सबसे पुरानी और समृद्ध रही है. इसे विश्व की सभी संस्कृतियों की जननी माना जाता है. जीने की कला हो, विज्ञान हो या राजनीति का क्षेत्र, भारतीय सकाफत का हमेशा से एक खास जगह रही है. भारतीय ज्ञान की ख्याति पूरी दुनिया में कदीम जमाने से रही है. भारत में अंग्रेजों के आने तक अगर दुनिया का सबसे समृद्ध समाह था तो अपनी शिक्षा के कारण ही. किसी भी देश में प्राकृतिक संसाधनों का अभाव हो तो उसका आयात बाहर से किया जा सकता है. इसी तरह से जरूरत पड़ने पर कुछ थोड़े से विशेषज्ञ भी बाहर से बुलाए जा सकते हैं लेकिन चरित्रवान नागरिकों का आयात नहीं किया जा सकता. चरित्रवान नागरिक का मतलब है कि देशभक्त, साहसी, पराक्रमी, बलिदानी, धैर्यवान, विनम्र और ज्ञानवान, संयमी और आत्मबोध से युक्त नागरिक. ऐसे नागरिक ही देश की असली पूंजी होते हैं. यह सृजन तालीम के जरिए ही मुमकिन होता है. ऐसे नागरिक कहीं आसमान से नहीं टपकते. उनको गढ़ना पड़ता है. यह काम सिर्फ देश की ही जरूरत नहीं है बल्कि पूरी इंसानियत और यहां तक कि पूरी दुनिया की भी जरूरत है. इस जगह हम शिक्षा में परिवार, शिक्षकों और शैक्षिक संस्थानों की महत्वपूर्ण भूमिका देख सकते हैं. अगर एक डॉक्टर, इंजीनियर या ठेकेदार कोई गलती करे तो इस गलती को कुछ वक्त बाद ठीक किया जा सकता है और उसका असर थोड़े ही लोगों पर पड़ता है लेकिन एक शिक्षक की गलती से पूरी नस्ल बर्बाद हो सकती हैं और उस नुकसान की भरपायी करना मुमकिन नहीं होता है.
गांधी जी ने लिखा है ’’शिक्षा-तालीम का अर्थ क्या है? अगर उसका अर्थ सिर्फ अक्षर-ज्ञान ही हो, तो वह तो एक साधन जैसी ही हुई. उसका अच्छा उपयोग भी हो सकता है और बुरा उपयोग भी हो सकता है. एक शस्त्र से चीर-फाड़ करके बीमार को अच्छा किया जा सकता है और वही शस्त्र किसी की जान लेने के लिए भी काम में लाया जा सकता है. अक्षर-ज्ञान का भी ऐसा ही है. बहुत से लोग उसका बुरा उपयोग करते हैं, यह तो हम देखते ही हैं. उसका अच्छा उपयोग प्रमाण में कम ही लोग करते हैं. भारत पश्चिमी सभ्यता के मोहपाश में है.’’ उन्होंने लिखा, ’’हम सभ्यता के रोग में ऐसे फंस गये हैं कि अंग्रेजी शिक्षा लिये बिना अपना काम चला सकें ऐसा समय अब नहीं रहा. जिसने वह शिक्षा पायी है, वह उसका अच्छा उपयोग करे. अंग्रेजों के साथ के व्यवहार में, ऐसे हिन्दुस्तानियों के साथ के व्यवहार में निज की भाषा हम समझ न सकते हों और अंग्रेज खुद अपनी सभ्यता से कैसे परेशान हो गये हैं यह समझने के लिए अंग्रेजी का उपयोग किया जाये. जो लोग अंग्रेजी पढ़े हुए हैं उनकी संतानों को पहले तो नीति सिखानी चाहिए, उनकी मातृभाषा सिखानी चाहिए और हिन्दुस्तान की एक दूसरी भाषा सिखानी चाहिए. बालक जब पुख्ता (पक्की) उम्र के हो जायें तब भले ही वे अंग्रेजी शिक्षा पायें, और वह भी उसे मिटाने के इरादे से, न कि उसके जरिये पैसे कमाने के इरादे से. गांधी जी ने शिक्षा व्यवस्था से जुड़े मौलिक प्रश्न उठाये. बच्चों की शिक्षा की शुरूआत की भाषा आखिरकार क्या हो? 21 वीं सदी के भारत में ढाई तीन बरस के शिशु की शिक्षा शुरूआत भी अंग्रेजी से ही होती है.’’ गांधीजी ने दो टूक लिखा बालक जब पुख्ता (पक्की) उम्र के हो जायें तब भले ही वे अंग्रेजी शिक्षा पायें और वह भी उसे मिटाने के इरादे से, न कि उसके जरिए पैसे कमाने के इरादे से.’’
गांधीजी अंग्रेजी सत्ता की तुलना में अंग्रेजी सभ्यता और अंग्रेजी सभ्यता वाली शिक्षा को ज्यादा खतरनाक मानते थे. ‘हिन्द स्वराज’ का मतलब अंग्रेजीराज की जगह भारतीय राज ही नहीं है. हिन्द स्वराज का मतलब स्वसंस्कृति, स्वसभ्यता और स्वराष्ट्र के अंतरंग, स्वरस और स्वछंद में ही भारत के भविष्य का निर्माण करना है. राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के शिक्षा दर्शन के मुताबिक, शिक्षा ऐसी होनी चाहिए, जिससे बालक के शरीर का विकास होना चाहिए क्योंकि उनके मुताबिक, स्वस्थ शरीर मे ही स्वस्थ मस्तिष्क का निर्माण होता है. इसीलिए सबसे पहले उन्होंने शारीरिक विकास पर बल दिया. जिस प्रकार शारीरिक विकास के लिए शिशु को माँ के दूध की जरूरत होती है. उसी तरह मानसिक विकास के लिए शिक्षा की जरूरत है. व्यक्तिगत एवं सामाजिक विकास पर उनका मत रहा कि व्यक्ति ,समाज और राष्ट के विकास पर बल देते है. सामाजिक विकास का मतलब मनुष्य को समाज मे प्रेम और मानव मात्र की सेवा करने से ही आत्मिक विकास संभव हैं. गांधी जी आत्मिक विकास के लिए संस्कृति के ज्ञान की जरूरत पर विशेष बल देते थे. उनके मुताबिक, शिक्षा दर्शन में संस्कृति की अहम भूमिका होती है. शिक्षा के जरिए बालक में सत्य, अहिंसा, ब्रमचर्य, अस्वाद, अपरिग्रह और निर्भरता आदि गुणों का विकास होना चाहिए. आर्थिक विकास अभाव की मुक्ति के लिए व्यावसायिक शिक्षा पर बल देते थे और मनुष्य को आत्मनिर्भर बनाना चाहते है इसीलिए वह हस्तकला ओर उद्योग पर बल देते है. मनुष्य जीवन का अंतिम उद्धेश्य मुक्ति आत्मानुभूति व आत्मबोध मानते हैं. गाँधी जी ज्ञान कर्म भक्ति और योग पर समान बल देते है यह अहिंसा और सत्याग्रह को मूर्त रूप प्रदान करते हैं.
आज नई शिक्षा नीति के कारण शिक्षा सार्वजनिक विमर्श का विषय बना है. यह हमारी औपनिवेशिक शिक्षा ही थी, जिसने भारत के स्वराज को जमीन पर साकार नहीं होने दिया. इसलिए स्वराज की प्राप्ति के लिए जरूरी है कि हम अपनी शिक्षा को औपनिवेशिक जकड़बंदी से आजाद करें. अपने बच्चों को अपनी भाषा में अपनी शिक्षा हासिल करने का अधिकार दें. राष्ट्रीय शिक्षा नीति इस दिशा में एक बड़ा कदम है. अपनी जड़ों के साथ जुड़े बिना कोई भी समाज कामयाब नहीं हो सकता है. हमारा अतीत स्थापत्य कला की भव्यता, इंजीनियरिंग के चमत्कार और कलात्मक उत्कृष्टता से भरा हुआ है. भारत की इस सांस्कृतिक संपदा का संरक्षण, प्रोत्साहन और प्रसार देश की सर्वोच्च प्राथमिकता होनी चाहिए, क्योंकि यह देश की पहचान के लिए महत्वपूर्ण है. राष्ट्रीय शिक्षा नीति ने 21वीं सदी के भारत के लिए एक रोडमैप तैयार किया है और इसमें हमारी पारम्परिक ज्ञान प्रणालियों पर जोर दिया गया है. भारतीय ज्ञान की परम्पराओं को आगे बढ़ाकर, हम एक नए युग की शुरुआत की नींव रख रहे हैं.
हमें नौजवानों के साथ जुड़ने के लिए अपने पारम्परिक ज्ञान को समकालीन, संदर्भगत प्रासंगिकता से जोड़ना होगा. कई समकालीन चुनौतियों के समाधान हमारी पारम्परिक ज्ञान प्रणालियों में ही निहित हैं. राष्ट्रीय शिक्षा नीति के निर्माण और उससे जुड़ी बुनियादी बातों पर गौर करें तो यह भारत की आकांक्षाओं को पूरा करने का माध्यम है और यह प्रधानमंत्री के आत्मनिर्भरता हासिल करने के विजन को साकार करने का मूल मंत्र है. विज्ञान, संस्कृति, सभ्यता, कला, विभिन्न प्राचीन शिक्षाएं, इतिहास आदि हमारी गौरवशाली परम्पराओं का अहम भाग रहे हैं और हमारी युवा पीढ़ी को इन परम्पराओं की जानकारी होनी चाहिए और उन्हें इनका सम्मान करना चाहिए. विद्यार्थियों के लिए मूल्य आधारित शिक्षा पर जोर दिया जाना अनिवार्य है.
प्रो. (डॉ.) आतिश पराशर,
लेखक दक्षिण बिहार केंद्रीय विश्वविद्यालय, गया में पत्रकारिता विभाग के डीन हैं. लेख में दर्ज उनके विचार निजी हैं.